पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३८४

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सतमाऽध्याय आदानमप्रियकरं दानं च प्रियकारकम् । अभीप्सितानामर्थाना काले युक्तं प्रशरयते ॥२०४॥ उनके यथोदित धर्मो (रिवाजो) को प्रमाण करे और रत्नो में प्रधान पुरुषों के माथ उम का पूजन करे ( अर्थात् मये वजीरो के उस गद्दी पर बैठाये राजा को विलत देवे) ॥२०३॥ यद्यपि अमिलपित पदार्थों का लेना अप्रिय और दना (मय का) प्रिय है। तथापि समय विशप में लेना और देना दानो अच्छे है ।२०४॥ सर्व कर्मदयायत्त' विधाने दैवमानुपे । तयायमचिन्त्यं तु मानुषे विद्यते क्रिया ॥२०॥ यह सम्पूर्ण कर्म देव तथा मनुष्य के आधीन है। परन्तु उन दोनों में हैव अचिन्त्य है ( उस की चिन्ता व्यर्थ है ) इस लिये मनुष्य के प्राचीन अंरा में कार्य किया जाता है ।।२०५|| (२०५से आगे छहो भाग्य में प्राचीन भाष्यकार मेधातिथिका भाष्य इन ३ श्लोको पर अधिक है जो कि अब अन्य भाष्यो वा मूल पुस्तकों में नहीं पाचे जावे । प्रवीन होता है कि ये श्लोक पी से नष्ट हो गये वा किये गये :- [ देवेन विधिनायुक्त मानण्यं यत्प्रवचते । परिक्लेशेन महता तदर्थस्य समाधकम् ॥१॥ संयुक्तस्यापि दैवेन पुरुषकारेण वर्जितम् । विना पुरुषकारेण फलं क्षेत्रं प्रयच्छति ॥२॥ चन्द्रार्काया ग्रहा वायुरग्निरापस्तथैव च । इह देवन माध्यन्ते पौरुपेण प्रयत्लनः ॥३॥ जब कभी दैव की विमुखता मे पुरुषार्थ किया जाता है तब 1