पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८२ मनुस्मृति भाषानुवाद भी अधिक कष्ट उठाने से काम बन ही जाता है ||१|| और देव की अनुकूलता मे पुरुपाथ न किया जाय ता जैस बोया हुवा ही बीज खेती से मिलता है (बसे पूर्व पुरुषार्थ का ही फल होता है)। चन्द्र सूर्य आदि ग्रह, वायु और अग्नि तथा बादल सब संसार में यज्ञ पूर्वक ईश्वरीय पुरुषार्थ से ही सध रहे EUR) IRANI सह वापि व्रजेयुक्तः सन्धिं कृता प्रयत्नतः । मित्रं भूमि हिरण्यं वा सम्पश्यं स्त्रिविधं फलम् ।२० अथवा मित्रता. सुवर्ण, भूमि. यह तीन प्रकार का यात्रा का फल देखते हुवे उस के साथ सन्धि करके वहां से गमन करे। (अथान मित्रता या कुछ रुपया या भूमि लेकर उसके साथ प्रयत्न से सुलहकर चला आवे) ||२०|| पाणिंग्राह च सम्प्रच्च तथाक्रन्दं च भण्डले । मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलमवाप्नुयात् ।।२०७॥ हिरण्यभूमि सम्णप्त्या पार्थिवा न तथैधते । यथा मित्रं ध्रुवं लब्धा कृशमप्यायांत क्षमम् ।२०६। (जो पराये राज्य का जय करते राजा के पीछे राज्य वाता हुवा राजा आवे उस को) मण्डल में "पाणिग्राह" (कहते हैं) और (जो उस को ऐसा करने से रोके उस को) 'क्रन्द' (कहते है) दोनों को देख कर मित्र से वा अमित्र से यात्रा का फल ग्रहण करे। (ऐसा न करे जिस से पाणिग्राह वा क्रन्द अपने से विगड़ जायें ) ।।२०७॥ राजा सुवर्ण और भूमि का पाकर वैसा नहीं बढ़ता, जैसा (वर्तमान) दुर्यल भी आगामी काल में काम देने योग्य स्थिर मित्र को पाकर बढ़ता है ।।२०।।