पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सममाऽध्याय धर्मजं च कृतज्ञेच तुष्टप्रकृतिमेव च । अनुस्का थरारम्भ लधु मित्रं प्रशस्यते ॥२०६।। माझं कुलीनं शूरंच दक्ष दातारमेव च । कृतज्ञ प्रतिमन्तं च कटमागुरि बुधाः १.२१०॥ धर्मन, कृतज्ञ, प्रसन्नचिन्न प्रीति करने वाला, धिर कार्य का आरम्भ करने वाला बाटा मित्र अन्छा होना है ।२८९! बुद्धिमान कुलीन शूर, चतुर, दाता. कृतज्ञ और धैर्य वाले शत्र की विद्वान् लोग कठिन प्रहते हैं ॥२१॥ 'आर्यता पूरुपनानं शौर्य करणवेदिता । स्थौल लन्य च सततमुदासीनगुणोदयः ॥२११॥ क्षम्यां सस्यपदां नित्यं पशुवृद्धिकरीमपि । परित्यजेन्नृपा भूमिमात्मार्थमविचारयम् ॥२१२॥ 'सभ्यता मनुष्यों को पहचान, शूरता कपाजुना और मोटी २ बातों पर अरी लक्ष्य रखना, यह उदासीन गुणों का उदय है IR१२|| कल्याण करने घाजी मम्पूर्ण धान्यों को देने वाली और पशुद्धि करने वाली भूमि का भी गजा अपनी रक्षा के लिये विचार न करता हुआ छोड़ देव ॥२१२|| आपार्थ धनं रक्षेदारान् रोदनैरपि । आत्मानं सततं रनेदारैरपि धनरपि ।।२१३॥ सह सर्वाः समुत्पन्नाः प्रसमीच्यापदे भृशम् । संयुक्तांश्च वियुक्तांश्च सर्वोपायान्सृजेद् बुधः ।२१४१