पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९

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निवेदन मनुके भापानुवाकी धर्म जिज्ञासुमोको जिननी अधिक श्राव- श्यकता है उसे जिज्ञासुही जानते हैं और मम्प्रति मनु पर अनेक संस्कृत टीका और भापाटीकायोंक होते हुवे भी एक से अनुवाद की आवश्यकताथी जा सुगम हो, अल्पमूल्यका हो, संतिम और मूलका प्राशय भले प्रकार स्पष्ट करनेवाला हो जिसके अयों में बैंचातानी और पत्नपात नही । इसपर भी यह जाना जासक कि कितने और कौन २ से श्लोक लोगोने पश्चान मिला दिये हैं। यह एक ऐसा कठिन काम है जैसे दूधमे मिले पानीका पृथक करना । इसीलिये हमने अपर लिम्बे गुणों से युक्त यह टीका छापी है और जो श्लोक हमारी समझमें पीछे से और न मिला दिये हैं उनका ठीक उसी स्थान पर कुछ छोटे अक्षरो मे उपस्थित रक्खा है और " चिन्ह उनके ऊपर करा दिया है तथा सनपम उनके प्रतित मानने हेतु दिखलाते हुवे उसके अर्थम कुछ हस्तक्षेप न करके अपनी सम्मति ( ) चिन्हके भीतर लिखती है। जिसमे जिन मज्जनो को उन २ श्लोकों के प्रक्षिप्त माननेके हेतु पर्याम (काफी) प्रतीत हो वे श्रद्धा करें और जिनकी टिम अग्राह्य हो, वे न माने क्योकि हम निर्धान्त या सर्वज्ञ नहीं हैं और न मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। इसीमे अपनी सम्मति को सर्वोपरि मानकर पुस्तकमे से श्लोक निकाल नहीं दिये है। जहां तक बना छानवीन बहुत की है। कितने ही ऐसे श्लोकोंका भी पता लगता है जो अव मूलमे से निकल गये प्राचीन कालमें थे वा अभी सब पुस्तकांमें नहीं मिल पाये । हमने उनकोमी [ ] कोष्टक मे रक्खा है। जिन श्लोकों का स्वामी जी ने अपने ग्रन्थो मे माना है उनमे से हमने किसी को प्रक्षिप्त नहीं माना । मुम्बई के एक पुस्तक से जिसमे मेधातिथि,