पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९०

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ओम अथाष्टमोऽध्यायः व्यवहारान्दिनुस्नु ब्राह्मणै। मह पार्थिवः । मन्त्र मन्त्रिभिश्चैव बिनीतः प्रविशेत्समाम् ॥१॥ तत्रामीनः स्थितोवापि पाणिमुद्यम्य दक्षिणम् । विनीतवेपाभरणः पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम् ॥२॥ विशेष करके नीति में मुशिक्षित राजा व्यवहारी के देखने को बामणों और मन्त्र (सलाइ) के जानने वाले मन्त्रियों के साथ समा में प्रवेश करे ॥३॥ विनययुक्त वेष आभूषण वारण करके उस (ममा) में बैठा या खड़ा हुआ दाहिने हाय को उठाकर काम बालों के कामों को देने ॥ प्रत्यहं देशऐश्च शास्त्रदृष्टश्च हेतुभिः । अष्टादशम मार्गेषु निवानि पृथक पृथका३॥ (जो कि) अनादश १८ व्यवहार के मागों में नियत कार्य है उनको देश व्यवहार और शानद्वारा समझे हुवे हेतुप्रोसे पृथक् २ निय (विचारे) वे चारह आगे कहेहैं। (इसमें निवद्वानि-विवि- धानि' यह पाठ भेद मेधातिथि ने व्याख्यात किया है । तथा एक पुस्तक में इस नीमरे श्लोक में आगे क श्लोक यह अधिक पाया जाता है:- हिंमां य: कुरुने कश्चिदयं वा न प्रयच्छति । स्थाने ते २ विवादस्य निमायादशया पुनः) -