पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद अर्थ है कि उस कांटे को विद्वान् सभासद निकालते हैं)॥शा समावान प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम् । अनुवन्विनु बन्नापि नरा भवति किल्बिपी ॥१३॥ यत्र धर्माह्य धर्मेण सत्यं यत्रा नतेन च । हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ॥१४॥ या तो सभा (कचहरी) न जाना, जावे तो सच कहना । कुछ न बोले या भूठ बोले तो मनुष्य पापी होता है। (८ पुस्तकों में "समा वान प्रवेष्टव्या पाठ भेद है और एक में 'समायो न प्रवेष्टव्यम् पाठभेद भी देखा जाता है) ॥१३॥ जिस समामें सों के देखते हुवे धर्म, अधर्म से और सब झूठ से नष्ट होता है, वहां के समासद् ( उस पाप से ) नष्ट होते हैं ॥१४॥ धर्म एव हता हन्ति धी रक्षति रक्षितः । तस्माद्ध न हन्तव्यो मा नेाधाहतेोऽवधीत् ॥१५॥ वृयोहि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते बलम् । वृपलं तं चिदुर्देवास्तस्म.द्धर्म न लोपयेत् ॥१६॥ नष्ट हुवा धर्म ही नाश करता है और रक्षित हुवा धर्म रक्षा करता है । इस लिये धम का नष्ट न करना चाहिये जिस से नष्ट हुवा धर्म हमारा नाश न करे ||१५|| भगवान् धर्म को चूप कहते हैं उस को जो नष्ट करता है उस का देवता "वृपल जानते हैं। इस लिये धर्म का लोप न करे॥१६|| एक एव सुहद्धमें निधनेऽप्यनुयानि यः । शरीरेण सम नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ॥१७॥ 7