पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९४

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अष्टमाऽध्याय ३९१ 2 पादा-धर्मस्य कारं पादः साक्षिणमछति । पाद सभासदा सर्वान् पादा राजानमृच्छति ॥१८॥ एक धम ही मित्र है जो मरनं पर भी साथ चलता है अन्य सब शरीरके साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है ॥१७॥ (दुर्व्यवहार के करने से अधर्म के चार भाग हैं उन मे) एक भाग अधर्म करने वालका लगता है दूसरा भाग झूठा साक्ष्य देने वाले की, तीसरा सभासदों को और चौथा राजा को लगता है ॥१८॥ राजा भवत्पनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः । एनो गच्छति कार निन्दाहयत्र निन्धते ॥१६|| जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याब्राह्मण वः । कथयन ।२०॥ जिस समा मे असत्यवादी वा पापकर्ता की ठीक ठीक बुराई (निन्दा) की जाती है वहां राजा और समासद् निष्पाप होजाते हैं और (उस अधर्म) करने वाले को ही पाप पहुंचता है ।।१९।। जिस को जाविमात्र से जीविका है (किन्तु वेदादि का पूर्ण जान नहीं) ऐसा अपने को ब्राह्मण कहने वाला पुरुष चाहे (अभाव मे) धर्म का प्रवक्ता हो परन्तु शूद्र कभी नहीं ।। ( इस का यह तात्पर्य नहीं है कि ब्राह्मण कुलोत्पन्न कुपढ़ लोग धर्मप्रवक्ताहो किन्तु एक तो ऐसा पुरुष हो जो ब्राह्मणकुल में उत्पन्न मात्र हुवा है, वेदाध्ययनादि विशेष विद्या नहीं रखता. दूसरा शूद्रकुलोत्पन्न हो और वह भी विशेष विद्यासे हीन हो तो इन दोनों में वह उत्तम है जो कि ब्राह्मणकुलमे उत्पन्न है ) ॥२०॥ यस्य शद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम् । धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न तु शूद्र 1