पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९५

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३९२ मनुस्मृति भाषानुषार । तस्य सीदति तद्राष्ट पड़ गौरित्र पश्यतः ॥२१॥ यद्राष्ट शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्तमद्विजम् । विनश्यत्याशु तत्कृत्स्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम् ॥२२॥ जिस राजा के यहां धर्म का निर्णय शद करता है उस का बह. गव्य स्वतं हुवे कीचड़ में गौसा (स) पीड़ा को प्राप्त होजाना है ।।२ जिस राज्य मे शुद्ध और नास्तिक-अधिक हों और द्विज न हो यह सम्पूर्ण राज्य दुर्मिक्ष और व्याधि से पीड़ित हुवा शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है ॥२॥ धर्मासनमाधष्ठाय संवीताङ्गः समाहितः। . प्रणम्य लोकपालेभ्यः कार्यदर्शनमारभेत् ॥२३॥ अर्थानीवुभौ बुद्ध्वा धर्माधर्मी च कंवलौं । वर्णक्रमण सर्वाणि पश्येत्कार्याणिकार्यिणाम् ॥२४॥ (राजा)धर्मासन (गद्दी ) पर बैठ कर शरीर के स्वस्थचित्त. लोकपालों (जिन ८ दिव्यगुणों से राजा को युक्त होना चाहिये) को नमस्कार (आदर) करके काम देखना प्रारम्भ करें (अर्थात अच्छी तरह इजलास में बैठ कर मुकदमों को देखे ) ॥२॥ अर्थ अनर्थ दोनों को तथा केवलम और अधर्म को जान कर वर्णक्रम से ( अर्थात् प्रथम ब्राह्मण का फिर क्षत्रिय का-इस क्रम से ) कार्य वालों के सम्पूर्ण कार्यों को देखे ॥२४॥ बाय विभाइयेन्लिङ्ग विमन्तर्गतं नृणाम् । स्वखणेशिताकारैश्चक्षपा चेष्टितेन च ॥२५॥ आकारैरिङ्गितर्गत्या चेष्टया भाषितेन च ।