पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९६

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भामाऽध्याय नेत्रवक्त्रविकारश्च गृह्यनेऽन्तर्गतं मनः ॥२६॥ मनुष्यों के बाहर के लक्षण-स्वर (प्रावाज) और शरीर का) वर्ष और नीचे ऊपर देवना. आकार(पीना रोमाञ्च श्रादि) और चन नया चेनासे भीतरी अभिप्रारको समझे ॥२५॥ आकार मा. मारे, गति चा मारण और नेत्र तथा मुग्ध विकारों मे मन का भेद जाना जाना है ॥२ बालदायादिकं रिक्यं नावद्राजानुपालयेत् । यायमस्वारसमाना यानचातीतगामः ॥२७॥ शा-पुत्रासु चैव स्माद्रतणं निष्कुलामु च । पतित्रतामु च स्त्रीपु विधवास्यानुररामु च ॥२८॥ थाना के गागा काय रामा नब तक (जैम कोर्ट श्रामबाईन में) पालन करें जब तक वह समावन न वाला (पद्ध लिम्ब होशिकार) हो और जबनक लड़कपन जाता रह (अर्थान. जब तक बालिग हो) २०. -या वा भरिएडहिता, पतिव्रता और विधवा या निरोगिको नीम भी ऐपाही है। (उनके इन्य की भी राजा रक्षा करे ।। २४ में आगे नेशतिथि के भावानुसार एक यह श्लोक अधिक है.. [एवमेव विधि कुमाद्यामित्म पतितास्वपि । वस्त्रानपानं देयं च बलयुश्च गृहान्निके ॥ यहीं विधि पतित स्त्रियों में करे किवात्र भन्न पान और घर के समीप रहने की जगह दो जावे) Rel जीवन्तीनां तु तासा ये तद्धरयुः स्ववान्धवाः ।