पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९७

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मनुस्मृति भाषानुवाद तांछिप्यासारदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः ॥२६॥ प्रणटरगामक मिथं राजा ज्यब्दं निधापयेत् । अर्नाक्यब्दान्तवामी परेण नृपतिहरेत् ॥३०॥ उन जीवती हुई स्त्रियों का वह धन जो घान्धव हरण कर उन को चार दण्ड के समान धार्मिक राजा दण्ड दिवे ॥२९॥ जिम का स्वामी न हो उस (लाभारिस) धन को राजा तीन वर्षे तक रक्ने तीन वर्ष के भीतर ( उस के स्वामी का पता लोत वह) लेले. अनन्तर राजा रण (जप्त) करे अर्थात् बढोरा पीटन मेकि "जिस की हो ले जाने" ३ वर्ष तक कोई लेने वाला न मिले तो वह धन राजा का हो जावे) ॥३०॥ ममेदमिति यो त्र यात्सोऽनोज्यो प्रथाविधि । संवाग्ररूपसंख्यादी स्वामीतद्रव्यमर्हति ॥३१॥ अवेदयानो नष्टस्य देशं कालं च तचतः । वर्ण रूपं प्रमाणं च तत्सम दण्डमर्हति ॥३२॥ जो कहे कि यह धन मेरा है, तव उस से राजा यथाविधि पूछे कि क्या स्वरूप है और कितना है वा कैसा है इत्यादि । जब यह सब सही कहे तब उस धन को उसका स्वामी पावे ||३१|| नष्ट द्रव्य का वेश काल वर्ण रूप प्रमाण (अर्थात् कहां, कब कौनसा रन कैसा आकार कितना यह सव अच्छे प्रकार न जानता हो तो उसी के बरावर दण्ड पाने योग्य है । अर्थात् मूठा दावा करने वाले को उस धनके घरावर दण्ड दिया जावे, जिस धन पर उसने दावा किया हो)॥३२॥ आददीताथ पड्भाग प्रणष्टाधिगतान्नृपः ।