पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९८

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अष्टमाऽध्याय दशमं द्वादर्श वापि सतां धर्ममनुस्मरन् ॥३३॥ अणष्ठाधिगतं द्रव्यं तिष्ठेद् युक्तरविष्ठितम् । यास्तत्र चौरागृह्णीयावान् राजेभेन वातयेत् ॥३४॥ नष्ट द्रव्य फिर पाये तो उस मे उस व्य का छठा भाग वा दशवां वा बारहवां सत्पुरुषों के धने का अनुम्मरण करता हुआ राजा ग्रहण करे ॥३३॥ जो द्रव्य किसी का गिरा राजपुरुषों का पाया पहरे में रक्खा हो, उस को जो चोर चुरावे. उनको राजा हाथीसे मरवा डाले ॥३४॥ ममायमिति यो न यानिधि सत्येन मानवः । तस्याददीत पड़भागं राजा द्वादशमेवया ॥३५॥ अनृतं तु बदन्दण्डवः स्ववित्तस्यांशमष्टमम् । तस्यैव वा निधानस्यसंख्यायाल्पीयसीकलाम् ॥३६॥ जो पुरुष सचाई से ,कहे कि 'यह निवि मेरा है" उस के निवि से राजा छग वा बारहवां भाग ग्रहण करे (शेष उस को देवे ) ॥३५॥ (यदि वह पराये का “मेरा है" ऐसा ) असत्य कहे तो अपने धनका पाठयां भाग दण्डके योग्य है, वा गिन कर उमी धन के अल्स भाग पर दण्ड के योग्य है (निधि उसको कहते हैं जा पुराना बहुत काल पृथिवी में दवा हुवा रक्खा हो । वयोग से यह कभी किसी को मिल जाने तो वह राजा का धन है और यदि उस पर कोई अपनेपन का दावा करे और सत्य र सिद्ध होनावे तो छठा भाग राजालेिशेप उसे देदेवे । यदि मूठा दावा हो तो दावा करने वाले की जितनी हैसियत हो उसक अष्टमांश वा उस निधि का कुछ अन्श दावा करने वाले पर दण्ड