पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३९९

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मनुस्मृति भापानुवाद किया जावे )॥३६॥ विद्वांस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्वा पूर्वोपनिहितं निधिम् । अशेपतोऽप्यादीत सर्वस्माधिपतिहि सः ॥३७॥ यदि विद्वान् ब्राह्मण पूर्वकालम्थापित निवि को पावे तो यह सब लेले क्यो वह सब का स्वामी है (अर्थान् ।उस में में छठा भाग राजा न लेवे। ३७ वेसे आगे ४ पुस्तकोमें यह श्लोक अधिक पाता जाता है:- [प्रामणस्तु निधि लब्ध्वा विप्र राज्ञ विवेदयेत् । तेन द तु भुञ्जीत स्तेनः स्यादनिवेदयन् । यदि ब्राह्मण भी निधिको पावे नो शीव राजाको विदित करदे । फिर जब राजा उसे देदेव तो भोग लगावे और राजा का निवेदन करता हुवा। किन्तु चुपचाप भागना हुवा ] चोर समझा जा )|३७॥ यं तु पश्वेन्निधिं राजा पुराणं निहितं चितौ । । तस्माद् द्विजेभ्यो उचामधु कोशे प्रवेशयेत् ॥३८॥ राजा पड़ी हुई भूमि में जो पुरानी निधि को (म्बयं) पावे तो उस में आधा द्विजो को दान देकर प्राधा कोशमे रक्खे ॥३॥ निधीनां तु पुगणानां धातूनामेव च क्षितौ । अर्धमाग्रक्षणादाजा भूमेंरधिपतिहि सः॥३६॥ दातव्यं सर्ववर्णेम्यो राजा चौहतं धनम् । गजातदुपयुज्जानश्चौरस्याप्नोति किल्विषम् ॥४०॥ पुरानी निधि (ब्राह्मण से भिन्न को पाई हुई । और सुवर्णादि