पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४००

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अष्टमा ध्याय ३९ ७ A १ N के उत्पत्तिस्थानो का राजा आधे कामागी है । क्योकि मूर्मिकी रक्षा करने से वह उसका स्वामी है ।।३५।। जो धन चोरों ने हरण किया है उसका राजा पाकर धन के स्वामी को चाहे वह किसी वर्णका हो देदेवे। उस धन का यहि राजा सयं नाग करे तो चोरके पाप का पाता है ।।४० जातिजानपदान्धर्मान् यीधर्माश्च धर्मवित् । समीच्य - कुलधर्माश्च स्वधर्म प्रतिपादयेत् ॥४१॥ स्त्रानि कर्माणि कुर्वाणा दुरे सन्तोऽपिमानवाः । प्रियामवन्ति लोकस्य स्वस्वे कर्मण्यवस्थिता ॥४२॥ धर्मका जानने वाला (गना) जातिधर्म देशधर्म और अधर्म (पणिवृत्यादि) और कुलधर्म इन को अच्छे प्रकार देखकर (इन के विरुद्ध न हो) राजधर्म को प्रचरित करे (यहां धर्मशब्द रिवाजो का पाचक है, जो रिवाज वैदिक धर्मके विरुद्ध न हो )||४|| जाति देश और कुल के धमों और अपने कमों को करते हुवे अपने अपने कर्म में वर्च मान दूर रहने हुवे लोग भी लोक ( सोसाइटी) के प्रिय होते हैं (अर्थान् मनुष्य कहीं किसो विलायत में भी रहता हुआ, अपने देशादि के धर्म कर्म करता रहे तो सोसाइटी का प्रिय रहता है। इसनिये इम को न छोड़े म अमावे) ॥४२॥ नात्पादयेत्स्वयं का राजा नाप्यम्यपूरुषः । न च प्रापितमन्येन प्रसेदर्थ काञ्चन ॥४३॥ यथा नयत्यसक्पात गस्य मगयुः पदम् । नोत्तथाऽनुमानेन धर्मस्य नृपितः पदम् ॥४४॥ 1