पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४०२

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अष्टमाऽध्याय न स राजाभियोक्तव्यः स्वकं संसाधयन्धनम् ॥५०॥ अधमर्ण (कर्जदार) से ऋण कर्जे का धन मिलने के लिये उत्तमर्ण-महाजन के करजगार से महाजन का निश्चिन धन दिलाव जिन उपायों से महाजन अपना नया पा सके उन २ उपायों से ऋण संग्रह करके दिलावे ॥४८या नो धर्म मे या व्यवहार-राजद्वार या छल की चाल से या आचरित (लेन देन के दयाव) से या पांचवें बलात्कार मे यथार्थ धन का मायन करें (श्रदा करादे) ॥४९॥ जे महाजन आप करजदार से रुपया निकाल ले तो उस पर राजा अभियोग (मुहमा कायम) न करे जब कि वह ठीकर अपना धन निकाल रहा हो ।।५।। अर्थपव्ययमानं तु करणेन विभाविनम् । दापयेदनिकम्पार्थ दएडलेशं च शक्तितः ॥५१॥ अपन्हवे धमर्णस्य देहीत्युक्तस्य संसदि । अभियोक्ता दिशेहे श्यं करणं वान्यदिशेत् ॥५२॥ धन के विषय में नार करने वाले में लेब मान्यति द्वार प्रमाणित कर महाजन का न्यया और यथाशक्ति थोडा दण्ड भी (गजा) दिलावे ॥शा प्रथम नमा में अभियोक्ता (धमांमनस्य) करच लेने वाले से कहे कि महाजन का नया है। उन पर जब वह अह कि मैं नहीं जानता तब राजा माही (गवाह) व अन्य कुछ सायन (तमन्नुक आदि) के प्रस्तुत करने की उत्तमर्ण को आजा देवे ॥५॥ प्रश्चं यश्य दिशति निर्दिश्यापन्हुने च यः । यश्चाधरात्तरानन्विगीतानावबुध्यते