पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४०३

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४०० मनुस्मृति भाषानुवाद अपदिश्यापदेश्यं च पुनर्यस्त्वपघावति । सम्यवाहिणितं चार्थ पृष्ठः सन्नाभिनन्दति ॥५४॥ अमभाष्ये सानिमिश्च देशे संभापते मिथः । निरुच्यमानं प्रश्नं चनेच्छेद्यश्चापि निप्पतेत् ॥५५॥ बहीत्युक्तश्च न व पादुक्तं च न विभावयेत् । न च पूर्वापरं विद्यात्तस्मादात्स हीयते ॥५६॥ जो मूठ गवाह या कागज पत्र को निश (पेश) करता है और जो निर्देश करके नकार करना है और जो कि आगे पीछे कहे का ध्यान नहीं रखता ।।३|| और जो बात को उलटता है अपने प्रतिनात किये हुवे नापर्य को धर्मासनम्थ के पूछने से फिर नकार करता है ।।५४ा और जे एकान्त में गवाही के साथ बात चौत करता है जो बात के सन्द होने की जाचके लिये अभियोक्ता (अतालत) के पूछने ग अछा न समझे और जो इधर उधर दिना प्रयोजन वात को न मानता हुआ मे ||३५|| और पूछने पर कुछ न कहे और जो कहे तो बढ़ता के साथ न कहे और जो पूर्वापर वात को न जान वह अपन अर्थ (धन) को हार जाता है ।१६॥ साविण सन्ति मेत्युक्त्वा ।दशेत्युक्तोदिशेन यः । धर्मस्या कारणैरेतहीनं तमपि निर्दिशेत् । ५७|| अभियोक्तानचेव याद्वध्या दण्ड्यश्च धर्मतः । न चेत्रिपक्षात्प्रन यादर्भ प्रांत पगाजतः ॥५८।। मेरे साक्षी (हाजिर) हैं ऐसा कह कर जब (धर्माधिकारी) कह कि लादो तब (उनको) न लावं ता धमस्थ (अदारत) इन