पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. “अष्टमाऽध्याय ४०१ कारणोसे उसको भी पराजित (हार) कहदे ॥५४ा जो अभियोक्ता (सइई) राजद्वार मे निवेदन करके न वोले (अर्थात् नालिश करके जवानी न बोले) तब (आटे बड़े मुकदमे के अनुसार) बन्ध वा जुर्माने के योग्य हो और यदि उस पर मुहा-इलह डेढ़ महीने के मीवर मूठे दावे से हुई हानि की नालिश न करे तो घमेत. (कानून से) हार जावे ॥१८॥ या गावानह पीतार्थ मिथ्या यावति वायदेद । लौ नृपेण धर्मज्ञौ दायौ तद्विगुणं दमम् ॥५६॥ पृष्टोऽपव्ययमानस्तु कनावस्थो धनैरिया । ध्यवरैः सातिभिर्भाव्या नृपवाझणसन्निधौ ॥६०॥ जो (मुद्दाइलह अमल धन मे से ) जितने निको न दे और जो (मुद्दई असल धन से ) जितना बढ़ा कर दावा करे, उस (घटाये बढ़ाये) धन का दूना (अर्थात् घटाने वाले से घटाने का दूना और बढाने वालेसे बढानेका दूना) दण्ड उन दोनो अधमियो से राजा दिलावे ॥१९॥ राजा और ब्राह्मण के सामने पूरा जारे और नकारकरे वो महामन कमसे कमतीन गवाहोसे सिद्वकारे ।६।। • यादृशा धनिमि' कार्या व्यवहारे सानिणः । तादृशान्संप्रवक्ष्यामि यथावाच्यमतं च तै- ४॥६१।। गृहिणः पुत्रिणोमौल. चत्र विशयोनयः । अध्यु का साक्ष्यमर्हन्ति नयेकेचिदनापदि ॥६२॥ मुकदमों में महाजनों को जैसे गवाह करने चाहिये और उन (गवाहों) को जैसे सच बोलना चाहिये सो भी आगे कहता हूँ १६१|| कटुम्वी पुत्र वाले उसी देश के रहने वाने क्षत्रिय, वैश्य ५१