पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१०

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अष्टमाऽध्याय ४०७ सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते । तस्मात्सत्यं हि वक्तव्या सर्ववर्णेषु साचिभिः ॥८३॥ आत्मैव ह्यात्मन: साधी गतिरात्मा तथात्मनः । मावसंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम् ।।८।। सत्य से साक्षी पवित्र हो जाता है और सत्यभाषण से धर्म बढ़ता है। इसलिये सब वणों के साक्षिो को सत्य हो बोलना चाहिये ।।३।। (शुभ और अशुभ कर्मों में) आत्मा ही अपना साक्षी है और आप ही अपनी गति (शरण) है । इसलिये इन मनुष्यों के उत्तम साक्षी अपने आत्मा का (झूठ साक्ष्य से) अपमान मन कर || मन्यन्त वै पापता न कश्चित्तश्यतीति नः । तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुपः ॥८५|| धौ मिरापोहदयं चन्द्रागिन यमानिलाः । रात्रिः संध्ये च धर्मय वृत्तजाः सर्वदेहिनाम् ॥८६॥ पापकरने बाले जानते हैं कि हम को कोई देखता नहीं। परंतु उन को देवता (जो अगले श्लोक में गिनाये गये है ) देखते है और अपने ही शरीर का भीतर पाला पुरुप देखता है ||८५।। आकाश, भूमि जल हृदयः चन्द्र सूर्य,अग्नि यम, वायु रात्रि दोनो सन्ध्या और धर्म ये सब प्राणियों के शुभाशुभ कर्मोका जानते हैं। (इस लिये साक्षी असत्य न घोले । इन जड़ पदार्थों का अविष्टात देव ( परमात्मा) जाता समझो । प्रपञ्चपूर्वक कथन प्रभा- वार्थ )|८|| देवब्राह्मणसानिध्ये साक्ष्यं पृच्छेदृतं द्विजान् ।