पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१२

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भठमाऽध्याय तेन चेद विवादस्ते मा गङ्गा मा कुरून् गमः || हे भद्र पुरुष 'मैं एकला ही हूँ" ऐसा यदि अपने को मानता है तो तेरे हृदयमे नित्य पाप पुण्योंका देखने वाला मुनि (परमात्मा) तोस्थित है ॥९॥ वैवस्वत ग्रम (परमात्मा) जो यह तेरे हृदय में स्थित है, उस के साथ यदि विवाद नहीं है तो (पाप के प्रायश्चित्त या दण्डभोगार्थ) गङ्गा और कुरुदेशो को मत जा। (ऐसा जान पड़ता है कि आर्य राजों ने गङ्गा तट और कुरुदेशो में विकनफल भागने के स्थान विशेष नियत कर रक्खे थे। और एक प्रकार से तो यह श्लोक पीछे का ही जान पड़ता है। क्योंकि गङ्गाको भागीरथ ने प्रकट किया मनु के समय में नो ग्रह गङ्गा का प्रवाह ही न था) ॥२॥ नग्ना मुण्डः कपालेन भिक्षार्थी क्षुत्पिासितः । अन्धः शत्रुकुलं गच्छेयः साच्यमन् वदेत् ॥१३॥ अवाक्शिरास्तमस्यन्धे किन्धिपी नरकं ब्रजेत् । यः प्रश्नं वितथं व यात्पृष्टः सन्धर्मनिश्चषे ||४|| जा कूठ गयाही हेये वह रूपडे से नङ्गा, सिर मुण्डा, कपाल हाथ में जिय मिसनमा चालिसे पीडिन और अन्या होकर शत्रुकुल मे गमन करे।।शा जो धन निर्णय के लिये पूछा हुवा थमत्य बोले, वह पारी अंगमुख बडे अन्धकार रूप नरक में जावे ॥४॥ अन्य मत्स्यानिवाश्नाति स नर: एटकैः सह । यामापतेर्थव कल्पमप्रत्यक्ष समां गतः ॥१५॥ यस्य विद्वान् हि बदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशते । ५२