पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१३

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मनुस्मृति भाषानुवाद वस्मान देवाः श्रेयांस लोकेऽन्य पुरुष विदुः ॥६६॥ जो समामें जाकर विना देखी यातको झूठी बना कर बोलता है, वह अन्या होकर कांटो सहित माली सी खावा है ।।५।। जिस के बोलते हुवे चेतन जीवात्मा शङ्का नही करता उस से बढ़ कर देवता लोग दूसरे को अच्छा नहीं मानते ॥९६॥ यावतोबान्धवान् यस्मिन् हन्ति साक्ष्ये नृतंवदन् । तावतः संख्यया तस्मिन् ऋणु सौम्यानुपूर्णशः ।६७) पञ्च पश्वनते हन्ति दशहन्ति गवानते । शतमश्वानृते हन्ति सहस्रम् पुरुषानृते |Hell हे सौम्य ! (साक्षिम् ) जिस साक्ष्य मे मूठ बोलने वाला जितनं घान्धवो को मारने का फल पाता है उस मे क्रमश. उतने को गिनती से सुन । (देखिये बड़ो से भी भूल होती हैं। इस श्लोक में 'सौम्य यह सम्वोधन स्पष्ट प्रकरणानुसार गवाह (साक्षी) के लिये है। परन्तु प्राचीन भाष्यकार मेधातिथि कहते हैं कि यह सम्बोधन मनु ने मृगु को दिया है। एक पुस्तक मे इस से आगे १ प्रक्षिप्त श्लोक भी मिलता है परन्तु हमने व्यर्थ सा समझ कर उद्धृत नही किया) ॥९७|| पशु के विषय मे झूठ बोलने से पांच वान्धवो के मारने का फल पाता है। गौ के विषय में दश. घोडे के विषय मे सौ और पुरुष के विपय में सहस्र (बान्धवो के हनन का पातक प्राप्त होता है)॥९८॥ हन्ति बातानजातांश्च हिरण्याऽर्थेऽनतं वदन् । सर्व भृम्यऽनते हन्ति मा स्म भूम्यऽनृतं वदीः 188 सुवर्ण के लिये असत्य बोलने वाला. उत्पन्न हुवों और न हुवों