पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१६

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अपमाऽध्याय स्वर्गाच्च्यवते लोकादेवी वार्च वन्ति वाम् ॥१८३|| शूद्रविक्षत्रविप्राणां यत्रोक्तौ भवेध । तत्र वक्तव्यमनृतं तद्धि सन्यादिशियने ||१०४॥" जो पुरुष जानना हुआ भी धर्म के अबदारी में अन्यथा कहने बाला है. यह स्वर्ग लोक से भ्रष्ट नहीं होता। क्या कि उस (असत्य ) को देववाणी माते है।।१०-18जिम मुकदमे में शन, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणो का सच बोलने से वध हो थहां मूठ बोलना चाहिये, क्यों कि वह मच से अधिक है ।।१०४॥ "वाग्देवत्यैश्च चमियरने सरस्वतीम् । अनृतस्यैनसस्तस्स कुवाणानिनि पराम ॥१८५।। कूष्माण्डैर्वापि जुहुयाद् धृत्तमग्नौ यथाविधि । उदित्यूचा वा वारुण्या चेनान्नवतेन वा ।।१०६।। उस म बोलने के पाप का अत्यन्त प्रायश्चित्त करते हुवे (वे साक्षी) वान्देवता सम्बन्धी चा से सरम्बवी का यजन करे ॥१०॥ अथवा कूष्माण्डों (यह वादेवहेडनम् इत्य यजु०२० । १४ मन्त्रों) से यथाविधि घृत का अग्नि मे हवन करे। वा 'उडु- त्तम वरुणपाशम० यजु०१२ । १२ इस वरुण देवता वाले मन्त्र सेवा (आपहिया यजु० ११ । ५०) इन जल देवता की ३ ऋचाओं से (.पूर्वोक्त श्राहुति करे)।" (१०३ से १०६ तक ४ श्लोक ठीक नहीं जान पड़ते। १०३ मै असत्य साक्ष्य से भी धर्मनिमित्त वालने में दोप नहीं बतायाः फिर १०४ में उस धर्मनिमित्त को सष्ट किया किनामयादि चारों को सत्य साक्ष्य देने से वध दण्ड होता देखे तो मूह वाल दे। वह मूठ मच से बढ कर है । १०५1१०६ में उस मूठ बोलने के पाप का प्रायश्चित्त है। धर्मशा.त्र का सिद्धान्त है कि अन्यायापाजित