पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४१७

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मनुस्मृति भाषानुवाद धनादि के व्यय से पुण्यकार्य करने मे पुण्य नहीं है जैसा कि पूर्व मनु ही कहते आये हैं। फिर चारों वर्ष किसी को मार डालें और राजा के सामने कोई सच्ची गवाही न देता कदाचित् चण्डालादि ही शेष बचे वध दण्ड पा सके । अन्य तो चार वर्ण छूट ही गये। फिर यह विचारना चाहिये कि यदि यह झूठ सच से बढ़ कर है तो पाप के होते हुवे प्रायश्चित्त किस बात का है। इस विषय में मेधातिथि ने १०० श्लोको के बरावर इन्हीं पार श्लोकों पर भाष्य बढ़ा कर समाधान का उद्योग किया है परन्तु उस समाधान से सन्तोप नहीं होता) ॥१०॥ त्रिपक्षादव वन्साक्ष्यमृणादिषु नरोऽगदः। तहणं प्राप्नुयात्सर्व दशमन्धं च सर्वतः ॥१०७॥ यस्य दृश्येत सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः । रोगाग्निातिमरणमणं दाप्योदमं च सः ॥१०॥ व्याधि आदि विघ्नरहित मनुष्य लेन देन के विषय में डेढ़ महीने तक गवाही न देवे तो महाजन का कुल ऋण (रुपया) देवे और उस सब रुपये का दशवां भाग राजा को दण्ड देवे ॥१०॥ जिस गवाही देकर गये हुवे साक्षी के सात दिन के भीतर रोग, अग्नि और पुत्रादि का मरण होजाय तो वह महाजन को रुपन और राजा को दण्ड देने योग्य है। (सव भाष्यकारों ने ऐसे साक्षी को इस हेतु भूसा माना है कि हैवी आपत्तियां उस की झूठी गवाही का प्रमाण हैं । सर्वज्ञ नारायण भाष्यकार ने इतना अधिक लिखा है कि (तत्प्रागनुजा- तनिमित्तकृत ग्राह्यम) "अर्थान् जब कि रोगोत्पत्ति गृहादिमे अग्नि लाने और पुत्रादि की मृत्यु का हेतु गवाही देने से पहला न हो तव उसे मृगगवाह समझना चाहिये" परन्तु यह भी युक्ति दुर्वल