पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रटमाध्याय ४१७ 4 ने जगर के शुभाराम जानने वाले श्रग्नि में प्रवेश किया, मा सत्य के कारण) अग्नि ने उसका एक रोम भी नहीं जलाया (११४ । ११५ । ११६ भी असंभवाहि देपा से चिन्त्य होने के अतिरिक्त वत्स ऋषि के इतिहास से अत्यन्त स्पष्ट है कि पीछे से मिलाये गये । इस प्रकरण मे ८२ से आगे ३,९९ से आगे शा १०० वे से आगे १, १०२ से आगे १ और दूसरे पुस्तक मे १ सब ७॥ श्लाक तो स्पष्ट ही सब पुस्तको मे नहीं पाये जाते। इसपर इन इतिहासों से और भी निश्चित होता है कि हमारे प्रक्षिम बनाय हुवे श्लोक जो सवापुस्तकों में मिल रहे है, वे भी अवश्य पीछ में ही मिले हैं ॥११॥ यस्मिन्यस्मिन्विवादे तु कौटसाच्यं कृतं भवेन् । तत्तत्कार्य निवौत कृतं चाप्यकृत भवेत् ॥११७॥ लोभान्मोहाद्भयान्मैन्याकामात् क्रोधात्तथैव च । अज्ञानाद्वालभावाच्च साच्य वितयमुच्यते ॥११॥ जिस सुकदमे मे गनाहा ने झूठी गवाही दी ऐसा निवय हो उस मुकदमे को फिर से बौहराने और जो दण्डादि कर चुका हो उसे नहीं किया समझे ( फिर से विचार हो) ॥११॥ लोग, माइ भय, मित्रता काम क्रोब अचान तथा लड़कपन से गवाही झूटी कही जाती है ॥११॥ एपामन्यतमे स्थाने या साच्यमनृतं वदेत् । तस्पद ण्डविशेपास्तु प्रवच्याम्यनपूर्वशः ॥११६॥ लोमारसहस्त्र' दण्ड्यस्तु माहात्पूर्वतु साहसम् । मयाद् द्वौ मध्यमौदण्डौ मैच्यात्सूर्य चतुर्गुणम्॥१२॥ ५३