पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४२३

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४२० मनुस्मृतिभापानुनाद । स्वर्ग का अहित करने वाला है। इस कारण उस न करे (अर्थान बेइन्साफी से सना न देने) ॥१२७|| अभएडनीयों को दण्ड देता हुश और दण्डनीयों को छोड देन गला राज बड़े अपयश का पाता और नरक में भी जाता है। वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दएडं तदनन्तरम् । तृतीयं बनदण्डंतु बधदण्डमतः परम् ॥१२६॥ वधेनापि यदा त्येतानिग्रहीतु न शक्नुयात् । तदंप सर्वमप्येतत्प्रयुञ्जीत चतुष्टयम् ॥१३०॥ प्रथम वाग्दण्ड देो (अथी। वह कहे कि तूने बह बुरा किरा इस कहने पर न माने तो) दुमरी वार विस्तार टण्ड देवे। तीसरी बार बनदण्ड (जुरमाना) करें। चौथी बार बबदण्ड-(अपरावानु- मार) देह दण्ड देबे ॥१२९।। यदि देहहण्ड मे भी उनसे वश में न कर सके तो इन पर वाग्दण्डादि सब चारो दण्ड करे ||१३०॥ लोकव्यवहारार्थ याः संज्ञाः प्रविना मुधि । प्ररूप्यसुवर्णानां ताः प्रवच्याम्यशेषतः ॥१३१ । जालान्तरगते भानौ यत्सूम दृश्यते रज.! प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणु प्रचक्षते ॥१३२ । तावा चादी और सोने की जो (पणदि) संज्ञा लोगों के व्यवहार के लिये प्रथिवी में प्रसिद्ध है उन सब को (दण्डप्रकरणों- पयोगी होने से) आगे कहता हूँ ॥१३१|| मकान के रोशनदान में सूर्य की धूप मे जो बारीक २ छोटे रन (जर) दीग्रते हैं, इह मापे को प्रमाणोमे पहिला (परिमाण) "त्रमरेण' कहते है ॥१३॥ असरणबोष्टौ विज्ञेया लिक्षका परिमाणतः ।