पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४२५

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४२२ मनुस्मृति भापानुवाद से चार सुवर्ण को १ "निष्क' जाने ॥१६ला दो सौ पचास पणा का प्रथम साहस' कहा है और पांच सौ पणों का 'मध्यमसाहस' तथा १ सहन पणों का उत्तम साहस जान ॥१३॥ ऋणेदेये प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतमर्हति । अपहवे तद्विगुणं तन्मनोरनुशासनम् ॥१३६|| वसिष्ठविहितां वृद्धि सृजेवित्तविवर्धनीम् । अशीतिमागं गृह्णीयान्मासाद्वाघु पिकः शते ॥१४०॥ यदि करजदार सभामें कहदे कि मुझे महाजन का रुपया देना है तो पांच प्रतिसैकड़ा दण्ड योग्य है और इंकार करे (परन्तु सभा मे फिर प्रमाणित हो) तो दश प्रति सैकड़ा दण्ड देने योग्य है। इस प्रकार (मुझ) मनु की आना है ॥१३९॥ धन को बढ़ाने वाली वसिप्पोक्त वृद्धि (सूद) असीवां भाग सौ पर व्याज खाने वाला मासिक प्रहण करे (अथात सवारण्या सैंकड़ा व्याज ले ॥१३९ व १४० में भी नवीनता की झलक तो है क्योकि 'मनु की आजा' और वसिष्ठ का नाम आया है) ॥१४॥ द्विकं शतं वा गृहीयात्सतां धर्ममनुस्मरन् । द्विकं शतहि गृहानो न भवत्यर्थकिन्धिपी ॥१४॥ द्विक त्रिक चतुष्कं च पंचकंच शतं समम् । मासस्य वृद्धि गृहीयाद्वर्णानामनुपूर्वशः ॥१४२॥ सत्पुरुषो के धर्म का स्मरण कर (बड़ो का नाम ले) दो रुपया सैकड़ा व्याज ग्रहणकरे। दो रुपया सैकड़ा व्याज प्रहणकरने वाला उस धनसे पापी नहीं होता ।।१४।। ब्राह्मणादि वणों से क्रमसे दो, तीन, चार और पांच रुपये सैकड़ा माहवारीव्याज प्रहणकरे ।१४२॥