पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३२

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अष्टमाऽध्याय चीन दूसरे के लिये क्लेश पाते हैं साक्षी. प्रतिमू तथा कुल और चार दूसरे के कारण बढ़ते हैं ब्राह्मण धनी वनिया और राजा॥१६क्षीण धन वाला भी राजा लेने के अयोग्य धन को नप्राण करे और ममृद्ध भी (राजा) उचित थोडे धन को भी न छोड़े ॥१०॥ अनादेयस्य चादानादादेयस्य च वर्जनाद । दौर्बल्यं ख्याप्यते राज्ञः सप्रत्येह च नश्यति ॥१७॥ स्वादानाद्वर्णसंसर्गाभवलानां च रचणात् । बलं संजायते राज्ञः स प्रत्येहच वर्धते ॥१७॥ अग्राह्य के ग्रहण तथा प्राह्य के त्याग से राजा की दुर्वलता (नील) प्रसिद्ध हो जाती है। इस कारण वह इस लोक और परलोक में नष्ट होता है ॥१७१।। (न्यायोचित) धन के ग्रहण करने और वों के नियम में रखने और निजी के मंरक्षण से राना का बल होता है। इससे वह (राजा) इस लोक तथा परलोक में वृद्धि पाता है ॥१७॥ तस्माद्यम व स्वामी स्वयं हित्वा नियारिये । वर्तेतयाम्यया वृत्या जितक्रोधोजितेन्द्रियः ॥१७॥ यस्वधर्मेणकार्याणि महात्वर्यानराधिपः । अचिरा दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः ॥१७॥ इसलिय यमराज के तुल्य राजा जितक्रोध और जितेन्द्रिय होकर पान प्रिय अभिय को छोड़कर यमराज (न्यायी ईश्वर) के सी (सयम सम) वृत्ति से बतें ॥१७जो राजा अज्ञानवश अधर्म से व्यवहारिक कार्य करता है उस दुष्टात्मा को थोड़े ही दिनों में शव वश में करलेते हैं ॥१७॥