पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३७

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मनुस्मृति भागनुवार स सहायः स हन्तव्यः प्रकासविविधैर्वधैः ॥१६॥ निक्षेपायः कृतो येन याांश्च कुलसन्निधौ । तावानेव स विज्ञगे चित्र बन्दण्डमर्हति ॥१६॥ ("तुम पर राजा अप्रसन्न है, उस से हम तुम को बचाते हैं, हम को धन दो' इत्यादि धाखा वा दवाव ) उपधा देकर दूसरे का धन जो कोई लेता है, वह सहायकों सहित नाना प्रकार की ताडना देकर प्रत्यक्ष मारने योग्य है ॥१९३|| जो सुवर्णादि जितना. जितने साक्षियों के मामने धरोहर रक्या हो, उस मे (तोल का बखेडा होने पर) साक्षी जितना कहे, उतना ही जानना चाहिये (उस में ) तकरार करने वाला दण्ड पाने योग्य है ॥१९४।। मिथा दायः कृतायेन गृहीता मिथएव वा । । मिथएव प्रदातव्या यथादायस्तथा ग्रहः ॥१६॥ निक्षिप्तस्य धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च । राजा विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन्न्यासधारिणम् ।१९६॥ जिस ने एकान्त में धरोहर रक्खी और लेने वाले ने भी एकान्त मे ली हो, वह एकान्त ही मे देने योग्य है । जैसे लेवे वैसे देवे ॥१९५॥ धरोहर काधन और प्रीति से उपभोग के लिये रक्खे, धन का राजा धरोहर धारी को पीड़ा न देता हुवा से निर्णय करे ॥१९॥ विक्रीणीते परस्य स्व योऽस्वामीस्वाम्पमतः । न तं नयेत साक्ष्यतु स्तेनमस्तेनमानिनम् । १९७) अवहाभिवेच्चैव सान्वयः पट्शतं दमम् । निरन्वयोश्नपसर प्राप्तः स्याचौरकिन्धिपम्।।१६।।