पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३८

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अपमाऽध्याय ४३५ दूसरे की वस्तु जिसने विना स्वामी की आना के बेची है, अपने को साहु मानने वाले उस चोर को साक्षी न करे ।।१९७४।। इसरे की वस्तु का बेचने वाला यहि धनम्बामी के वश में हो तो उसे छ. सौ पण दण्ड टे और यदि सम्बन्धी न हो तथा बेचने को प्रतिनिधि (मुखतार) न हो तो चोर के समान अपराधी है ।।१९८।। अस्वामिना कृतोयस्तु दायोविक्रय एव वा । अकृतः स तु विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थिति।।१६। विना स्वामी जो दिया तथा वेचा, वह सब व्यवहार की जैसी मर्यादा है तदनुसार दिया वा बेचा नहीं समझा जावे ।। (१९९ से आगे १३ पुरनको मे यह श्लोक अधिक है:- (अनेन विधिना शास्तां कुर्वनस्वामिविक्रयम् । अज्ञानाज्ज्ञानपूर्व तु चौरखद्दण्डमर्हति ॥] उक्त विधि से राजा अम्यामिविक्रयका को शासन करे यदि विना जान किसी ने अस्वामिविक्रय किया हो, परन्तु जान बूझ कर करने वाला चोर तुल्यदण्ड योग्य है ॥१९९ में वायोविक्रयएक्पा कायोविक्रयएवचा १ पाठभेदमी चार पुस्तकोमें देखा जाता है)।१९९॥ संभोग दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्वचित् । श्रागमः कारणं तत्र न संभोग इनिस्थिति ॥ २०॥ जिस वस्तु का संभोग तो देखा जाता हो और क्रियादि आगम नहीं वहां आगम प्रमाण है, संभोग नहीं । यह शास्त्र की मयादा है (अर्थात् जिम ने जिस वस्तु को खरीदने आदि के उचित (जाइज) द्वार से नहीं पाया केवल भोग रहा है, उस में खरीदने थादिसे प्राप्त करने वाला ठीक समझा नायगा भोक्ता नहीं) P001