पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३९

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मनुस्मृति भाषानुवाद विक्रयायोधनं किञ्चिद् गृहीयात्कुलसन्निधौ । क्रयेण स विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम् ।२०१। अथ मूलमनाहार्य प्रकाशक्रयशोधितः । अदण्डयोमुच्यते राजा नाप्टिको लभते धनम्।२०२॥ जो कुल के सामने बेचने से खरीद कर कुछ घन ग्रहण करे, वह खरीदारी को सिद्ध करके राजा के न्याय से उस धन को पाता है ।।२०१॥ विना स्वामी बेचने वाले से प्रत्यक्ष खरीद करने वाला शुद्ध पुरुप यदि वेचने वाले को न भी लासके तो भी राजा का अदण्डय है। परन्तु नष्ट धनका स्वामी उस धनको (खरीदने चाले से) पाता है ॥२०॥ नान्यदन्येन संसृष्ट रूपं विक्रयमर्हति । न चासारं न च न्यनं न दुरेण तिरोहितम् ।।२०३॥ "अन्यां चेहर्शयित्वाऽन्यांवोढः कन्या प्रदीयते । उभे ते एकशुल्कंन व्हेदित्यनवीन्मनुः ॥२०४॥' एक वस्तु दूसरी के रूप में मिलती हो तो भी उसके धोक से वेचना योग्य नहीं है और न सड़ी हुई न तोल में कम और न विना दिखाये ढकीको वेचना योग्य है ।।२०३ ॥'ठहराव में किसी और कन्या को दिखावे और विवाह समय बर को अन्य कन्या दे दे तो वे दोनो कन्यायें एक ही ठहराये मूल्य पर विवाह ले. ऐसा मनु ने कहा था" (मनु ने कन्या विक्रय वर्जित किया है, इसलिये भी यह वचन मनु का नहीं माना जा सकता ) IR०४|| नोन्मत्ताया न कुष्ठिन्या न च या स्पृष्टमैथुना | पूर्व दोपानभिख्याप्य प्रदावादण्डमर्हति ॥२०५