पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४४०

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अष्टमाऽध्याय ४३७ ऋविग्यदि घृतोयज्ञे स्वकर्म परिहापयेत् । तस्य कर्मानुरूपेण देयोंशः सह कनुभिः ॥२०६॥ पगली कोदिन और योनिविद्धा कन्या के दोषों को प्रथम न बता कर कन्या का दाता दण्ड के योग्य है ।।२०५॥ यत्र में वरण किया हुआ ऋत्विक (बीमारी आदि से), कुछ कर्म करके छोड़ देवो उसका काम किये के अनुसार कर्ताओं के साथ दक्षिणा का अन्श देना योग्य है ।२०६॥ दचिणासु च दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् । कृत्स्नमेव लमेतांशमन्येनैव च कारयेत् ॥२०७॥ यस्मिन् कर्मणि यास्तु स्युरुक्ता। प्रत्यङ्गदक्षिणाः । स एव ता आददीत भजेरन्स एव वा ॥२०॥ दक्षिणा देदेने पर (याजक व्याधि आदि से पीड़ित होने के कारण )अपने कर्म को समान न करे तो सम्पूर्ण दक्षिणा पावे और शेष फर्म का दूसरे से करा देवे ।।२०७॥ जिस कम मे जो प्रत्या दक्षिणा कहां हैं उनको वही उस कम का का लेवे अथवा बांट कर ग्रहण करते IRel स्थं हरेतयाध्यमाधाने च वाजिनम् । होता चापि हरेदश्वमुद्गाताचाप्यनः क्रये ॥२०॥ सपामपिनो मुख्यास्तथानाधिना परे । वृतीयिनस्वतीयांशाश्चतुर्थी शाश्च पादिनः ॥२१॥ आधान मे रथ का अध्वर्यु ग्रहण करे और ब्रह्मा अश्व को और होता भी अश्व को और उद्गाता समक्रय धारण करने के लिये शकट (गाड़ी) ग्रहण करे ।।२०९ ॥ सपूणों मे दक्षिणा का