पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४४२

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अष्टमाऽध्याय आर्तस्तु कुर्यात्स्वस्थः सन्यथाभाषितमादितः । स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लमेव वेतनम् ।२१६। जो नौकर विना बीमारी के अहवार से कहे हुने काम का न करे, वह आठ "कृष्णल" दण्ड के योग्य है। और वेतन भी उस कोन देवे ।।२१५॥ यदि व्यामादि पीडारहित नौकर जैसा काम कहा वैसा ठीक ठीक करता रहे तो वीमार होने पर बहुत दिन का भी वेतन पावे ॥२१॥ यथोक्तमातः मुस्थावा यस्तकर्म न कारयेत् । न तस्य वेतन देयमल्यनस्यापि कर्मणः ॥२१७॥ एपधर्मो खिलेनाको वेतनादानकर्मणः । अत ऊर्ध्वं प्रबन्यामि धर्म समयभेटिनाम् ॥२१८॥ जो कामनेसा ठहराहो वैसा स्वयं बीमार हो और दूसरेसे मी न करावे या न्वाथ (नमुरुन) हुवा श्रार नकरे तो उसके थोडे ही काम शेष रहने पर भी सब काम का वेतन न देना चाहिये ।।२१७|| वेतन के न देनका यह सम्पूर्ण धर्म कहा । अब इसके आगे प्रतिज्ञा भटियो का धर्म कहता हूं: ॥२२॥ यो ग्रामदेशसंघानां कृत्वा सत्येन मंविदम् । विसंवदेनरो लोभार राष्ट्राद्विप्रवासयेत् ।।२१६।। निगृह्य दापयेच्चैनं समयभिचारिणम् । चतुः सुवर्णान्परिन कांग्छतमानं च राजतम् ॥२२०॥ जो मनुष्य प्राम वा देश के समूहों का सत्य से ममय (इकरार प्रतिज्ञा, ठेका वा पट्टा) करके लाभ के कारण उसको छोड़ दे तो -