पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अाठमाऽध्याय ४४१ 'पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यारवेव प्रतिष्ठिताः। नाकन्यासु क्वचिन यो लुप्तधर्मक्रियाहि वाः ॥२२६।। जो मनुष्य द्वष से कन्या को अकन्या (दुष्टा) कहे वह सौ पण दण्ड पावे यदि उस के कन्यानभङ्ग के दोष को न सिद्ध करे ॥२२५॥ क्योकि मनुष्योके पाणिग्रहण सम्बन्धी वैदिक मन्त्र कन्या के ही विषय में कहे हैं, अकन्या के विषय में कहीं नहीं । क्योकि विवाह के पूर्व दूपित कन्याओं का धर्मक्रिया लुप्त हो जातीहै ।२२६॥ पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् । तेषां निष्ठातु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ॥२२७॥ यस्मिन्यस्मिन्कृते कार्ये यस्येहानुशया भवेत् । तमनेन विधानेन धर्मे पथि निवेशयेत् ।।२२८|| पाणिग्रहण के मन्त्र निश्चय दार (स्त्री) हो जाने के लक्षण है उन मन्त्रों की समाप्ति सप्तपदी के ७३ पद में विद्वानो को जाननी चाहिये ।२२ जिस २ किये काममे पीछे पसंद नहीं उसको राजा इस (उक्त) विधि से धर्ममार्ग मे स्थापन करे ।।२२८॥ पशुषु स्वामिनांचैव पालनां च व्यतिक्रमे । विवाद संप्रवक्ष्यामि यथावद्धर्मतच्चतः ॥२२॥ दिवा वक्तव्यता पाले रात्री स्वामिनि तद्गृहे । योगक्षेमे न्यथा चेत्तु पालो वक्तव्यतामियात् ।।२३०॥ पशुषो के विषय मे पशु स्वामी और पशुपालों के विगाढ़ में यथावत् धर्मतत्व के विवाद कहता हूँ ।।२२९॥ दिन में चरवाहे पर और रात्रि में स्वामी के घर में स्वामी पर जवाबदेही है (और ५६