पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४५३

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४५० मनुस्मृति भाषानुवाद ३ पुरतको मे ये दो श्लोक अधिक पाये जाते हैं:- [विपक्षत्रियकार्यो दण्डो राजन्य श्ययोः । बैश्यचत्रिययोः शूरेः विप्रयः क्षत्रशूद्रयो । समुत्कापकर्षास्तु विप्रदण्डस्य कल्पना । राजन्यव श्यशूद्राणां धनवर्जमितिस्थितिः ॥ "एकजातिदिजातींस्तु वाचा वारुणया क्षिपन् । जिल्लायाः प्राप्नुवाच्छेद जवन्धप्रभवहि सः ||२७||" "यदि शूद्र द्विजातियों को गाली दे तो नीमके छेटनका दण्ड प्राप्त हो क्यों कि वह निकृष्ट से उत्पन्न है" (यह २६. के विरुद्ध है) ||२०||

  • नामजातिमहं त्वेषाममिद्रोहण कर्षतः ।

निक्षेप्यायोमय शंकुचलनास्ये उशांगुलः २०१॥ धर्मोपदेशं पेण विप्राणामन्य कुर्वतः । सप्तमासेचयेत्तल वक्त श्रोत्रे च पार्थिव ।।२७२॥"" "जो शूद्र द्विजातियों के नाम और जाति का उच्चारण करें उस के मुंह में जलती हुई दश अंगुल की लोहे को कील कनी चाहिये ||२७जो शूद्र अहङ्कार से ब्राह्मण को धर्म का उपदेश करे उस के मुख और कान में राजा गरम तेल डलवावे । (ये दोनों श्लाक भी २७० के तुल्य उसी शैली के हैं IRI श्रतं देशं च जातिं च कर्मशारीरमेव च । वितथेन ब्रुवन्द दाप्यः स्याद् द्विशतं दमम् ॥२७३१ , का वाप्पथवा खञ्जमन्यं वापि तथाविधम् ।