पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४५४

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अमाऽध्याय ५१ > तध्येनापि त्रु बन्दाप्योदण्ड कार्यापणावरम् ।२७४१ अत-पढ़ाई और देश तथा जाति और शारीरिक कर्म मूठ बतलाने वाले को राजा दो सौ पण दण्ड दे ।।२७ काण तथा लङ्गड़ा और अन्य कोई इसी प्रकार का अङ्गहीन हो, उस को सब भी उसी दोष से पुकारने वाला एक "कार्षापण तक इण्ड के योग्य है ।।२७॥ मातरं पितरं जायां मातरं तनयं गुरुम् । आचारयच्छतं दाप्यः पन्थानं चाददद्गुरो'।२७५॥ बामणक्षत्रियाम्यांत दण्डः कार्यों विजानता । माझणे साहसः पूर्व चत्रिये वेव मध्यमः ।२७६। माता, पिता, स्त्री, माई, पुत्र और गुरु को अभिशाप-पाली देने तथा गुरु को मार्ग न छोड़ने वाला सौ पण दण्ड के योग्य है २७|| ब्रामय क्षत्रियों के आपस में गाली गलौज करने में धन का जानने वाला राजा दण्ड करे तो उसमें (ब्राह्मण का अपराव होतो) ब्राह्मण को "प्रथम साहस तथा क्षत्रिय को "मध्यम साहस दण्ड दे ||२६|| "विदशवयोरेवमेव स्वजाति प्रति तत्वत. ईश्वर्ज प्रायने दण्डस्येति विनिश्चयः ॥२७॥" "वैश्य शूदो को आपसमे इसी प्रकार गाली गलौज करने में अपनी र जाति के प्रति ठीक २ छेद रहित दण्ड का प्रयोग करें। इस प्रकार निर्णय है ।। (२०७ का कथन बड़ा अस्तव्यस्त है। प्रथम तो वैश्य शद्रों की गाली देने का कथन है. फिर स्वजाति का वर्णन है। परन्तु