पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४५५

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मनुस्मृति भाषानुवाद स्वजाति मे शून को, जिलाछेद टण्ड का विधान प्रक्षिप्त २७० में भी नहीं है। इसलिये म्बजाति में जिलाछेदवर्ज कहना व्यर्थ है। तथा दण्ड का ब्यौरा भी इस श्लोक में नहीं है। इन कारणों से यह श्लोक २७० के तुल्य प्रक्षिप्त जान पड़ता है। इस के आगे भी एक श्लोक है जो कि केवल दो पुस्तकों में पाया जाता है । यथा- [पनित पतितेत्युक्त्वा चौरं चौरेति वा पुनः । वचनात ल्यदापः स्यान्मिथ्या द्विपिता ब्रजेत् ॥] व्यवहारमयूख मे इस को नारद का वचन बताया है) ॥२७७|| एप दण्डविधिः प्रोक्तोवापारुण्यस्य तत्वतः। अनऊ प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम् ॥२७८| यह वाक्पारुष्य की ठीक २ दण्डविधि कही (अत्र दण्डपारुष्य) विधि ('मार पीट का निर्णय ) कहता हूँ ॥२८॥ 'येन केनचिटंगेन हिंस्याच्वेच्छष्ट्रमन्त्यजः । छैतन्य तनदेवास्य तन्मनोरनुशासनम् ।२७६। पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनमर्हति । पादेन प्रहरकोपात्पादच्छेदनमहति ॥२०॥ अन्यज लोग जिस किसी अज से द्विजातियों को मारें, उन का वही श्रङ्ग कटवाना चाहिये । यह (मुझ) मनु का अनुशासन है २७९|| हाथ वा लाठी उठा कर मारें तो हाथ काटना योग्य है (न कि लाठी, काटी जावे) और क्रोध से लात मारे तो पैर काटना योग्य है ।।२८०॥ सहासनमभिप्रप्सुरुत्कृष्टस्यापकटज । ।