पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६०

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अमाऽध्याय ४५७ परमं यत्नमातिप्ठेत्स्तेनानां निग्रह नृपः । स्नानां निग्रहा दस्यऽयशो राष्ट्र' च वर्धते ॥३०॥ यह सम्पूर्ण मार पीट का निर्णय कहा अब चोर के पण्ड का निणय कहता हूँ ॥३०१॥ राजा चारोंक निम्ह के लिये बड़ा यत्न करे। चोरों के निमह से इसका यश और राज्य बढ़ता है ॥३२॥ अभयस्य हि वोढाता स पूज्यः सततः नृपः । सत्रहि वर्धते तस्य सदैवाऽमयदक्षिणम् ॥३०३। सगता धर्मपभागो राज्ञो भवति रक्षतः । अधर्मादपि पड्भागो भवत्यस्य सःचतः ।३०४॥ जो अभय का देने वाला राजा है वह सदा पूल है। उस का यह सत्र (यज्ञ) अभयरूपी दक्षिणा से वृद्धि को प्राम होता है ।३०३। रक्षा करने वाले राजा की सब से धर्म का छटा भाग और रक्षा नकरने वाले राजा को भी सब से अधम काटा माग मिलत यदधीते यजते यहढाति यदर्चति । तस्य पड्भागमायाजा सम्पग्भाति रक्षणात्।।३०५॥ रतन्ध भूतानि राजा बघ्यांश्च घातयन् । यजतेऽहरहई महस्रशवदक्षिण ॥३०॥ जो कोई वेदपाठ, यज्ञ, दान, गुरु पूजनादि करता है, उसका हा भाग अच्छे प्रकार रना करने से राजा पाता है ॥३५॥ प्राणियों की धर्म से रक्षा करता हुवा और वाधो को दण्ड देता हुआराजा मानो प्रतिदिन लक्षदक्षिणायुक्त यक्षीका करता है ।३०६॥