पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६१

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मनुस्मृतिभावानुवाद योऽरक्षन्वलिमादचे करं शुल्कं च पार्थिवः । अतिभागं च दण्डं च स सयो नरकं ब्रजेत् ॥३०७॥ अरक्षितारं राजानं बलिपड्भागहारिणम् । तमाहुः सर्गखोकस्य समग्रमशहारकम् ।।३०८|| जो रक्षा न करता हुवा राजा धान्य का छटा भाग चुङ्गी कर तथा दण्डका भाग लेता है वह शीघ नरकमे जावेगा (४ पुस्तकोंमें 'प्रति भागम्' पाठ है) ॥३०७|| जो राजा रक्षा नहीं करता और धान्य का छटा भाग लेना है उसको सब लोगो का सम्पूर्ण पाप ढोने वाला कहते हैं ॥३०॥ अनपेचितमर्यावं नास्तिकं विप्रलुम्पकम् । अरक्षितारमत्तारं नृपं विद्यादधेोगतिम् ॥३०॥ अधामिकं विभिन्यायनिगृह्णीयास्त्रयत्नेनः । निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च ॥३१०॥ (शास्त्र की) मर्यादा का उलंघन करनेवाले. नास्तिक, अनुचित देण्डादि धनको प्रहण करने वाले रक्षा न करने वाले कर आदि) भक्षण करने वाले राजा को अधोगामी जाने ॥३०५|| अधार्मिक पुरुष का तीन उपायों से यत्न पूर्वक निमह करे । एक कारागार (हवालात्) दूसरा बन्धन, और तीसरा विविध प्रकार वध (वेत आदि लगवाना) ॥३१०॥ निग्रहेणहि पापानां साधूनां संग्रहेण च । द्विजातय इवेज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः ॥३११ क्षन्तव्यं प्रभुणानित्यं क्षिपता कार्यिगां नृणाम् ।