पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६३

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४६० मनुस्मृति भाषानुवाद शासनाद्वा विमोक्षाचा स्तेनः स्तंपाद्विमुच्यते । अशासित्वातुतंराजास्तनस्याप्नोति किन्चिपम॥३१॥ तब चोर शासन से पा छोड़ देने में चारी के अपराध से छूट जाता है, और यदि राजा उसको दण्ड न दे तो उस चोर के पाप को पाता है ।।३१६॥ अन्नादे भ्रूणहा माष्टिपत्यो भार्यापचारिणी । गुरौशिष्यश्च याज्यश्च स्तेनाराजनिकिल्वियम्॥३१॥ राजनि तदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनायथा ॥३१८॥ भ्रूणहत्या वाले का पाप उसके अन्न खाने वाले को और व्यभिचारिणी स्त्री का पाप पति को और शिष्य का पाप गुरु को तथा यज्ञ करने वाले का कराने वाले को (उपेक्षा करने से) लगता है। वैसे ही चोर का पाप (छोड़ने से) राजा को होता है ।।३१७॥ पाप करके भी राजा से उचित दरड पाये हुवे मनुष्य, निष्पाप होकर स्वर्ग को जाते हैं जैसे पुण्य करने से सन्त ॥३१८।। यस्तुरज्जुघर्ट कूपारेदिन्याच्चयः प्रपाम् । सदण्डं प्राप्नुयान्माष तश्च तस्मिन्समाहरेत् ॥३१॥ धान्य दशम्यः कुम्मेभ्योहरतोऽभ्यधिकं वधः । शेपेप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद्धनम् ॥३२०॥ जो कुवे पर से रस्सी और घड़े को चुरावे और जो प्याऊ को तोड़े उसको सौने का एक 'मापदण्ड हो और उस रज्जु और घड़े को उसी से रखावे और प्याऊ को भी वे वनावे ॥३१९॥