पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६६

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अष्टमाऽध्याय ४६३ -निरन्थये शतं दण्ड: साऽन्वरेऽर्धशतं दनः ॥३११ स्यात्साहसं त्वन्वयवत्प्रसभं कर्म यत्कृतम् । निरन्त्रयं भवेत्स्तेयं हुत्वाऽपव्ययते च यत् ॥३३२॥ पवित्र शोधित धान्य और शाक भूल फल के चुराने मे वंश सम्बन्ध रहितो को शत १०० दण्ड और वश में चार होता पचास ५० ठण्ड हो ॥३३१॥ जो धान्यादि को सामने बल से कुटुम्बियों के समान छीन लेवे. वह साहस है। और (स्वामी के पीछे) उपरियों के समान लेवे, वह चोरी है तथा लेकर जानकार करे वह भी चोरी ही है ॥२३॥ यस्त्वेतान्युपक्लुप्तानि द्रव्याणि स्तेनबरः । तमा दण्डयेद्राजा यश्चाग्निचोरयेद्गृहात् ॥३३३॥ येन येन यथाङ्गन स्नो नपु विचेष्टते । तत्तदेव हरे,स्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः १३३४॥ जो मनुष्य इन बनाई चीजों और अग्नि को चुरावे उसको राजा "प्रथम माहम" दण्ड दे ॥३३॥ जिस २ अङ्ग से जिस २ प्रकार चोर चोरी करता है, राजा उसका आगे को प्रमश निवारण के लिये वही श्रद्ध छिन्न करे ।।३३४] पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः। नाऽदंड्योनाम राज्ञोऽस्ति या स्वधर्म न तिष्ठति।३३५॥ कापिणंभवेदण्ड्या, यवान्यः प्राकृताजनः । तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा ॥३३६|| पिता आचार्य मित्र माता भार्या पुत्र और पुरोहित इन से ३