पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६७

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मनुस्मृति भाषानुवाद जो स्वधर्म में न रहे वह राजा को अण्ड्य नहीं है (दण्ड योग्य है) ॥३३५ जिस अपराध में अन्य लोग "कार्यापण दण्ड के योग्य हैं, उसी अपराध मे गजा को सहन पण दण्ड हो यह मर्यादा है ।।३३६|| अष्टापर्य तु शूद्रस्य स्तये भवति किन्चिपम् । पोडशेषतु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च ॥३३७॥ ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्ण वापि शतं भवेत् । द्विगुणा वा चतुः पप्टिस्वदोपगुणविद्धि सः ॥३३८॥ शूद्र को चोरी में आठ गुणा पाप होता है वैश्य को सोलह गुण क्षत्रिय को बत्तीस गुणा ॥३३४ा ब्राह्मण के चौंसठ गुणा पाएक सौ अाइस गुणा पाप होता है क्योंकि वह चोरी के दोप मुण जानने वाला है ।।३३८॥ भवानस्पत्यं मूलफलं दावग्न्यर्थ तथैव च । तृणं च गाभ्योगासार्थमस्तेयं मनुरवीत् ॥३३९॥' वनस्पति सम्बन्धी मूल फल और जलाने को काष्ठ और गायों के लिये घास यह चोरी नहीं है ऐसा मनु ने कहा है"।।३३९॥ योदचादायिनो हस्तालिप्सेत ब्रामणोधनम् । याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः॥३४०॥ जो ब्राह्मण चौर के हायसे यज्ञ कराने और पढ़ाने से भी धन लेने की इच्छा करे तो जैसा चोर है वैसा ही वह है ।।३४०॥ द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिविक्ष द्वच मूलके । आइदानः परक्षेत्रान दंड दातुमर्हति ॥३४॥