पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७३

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४७० मनुस्मृति भाषानुवाद निषिद्धो भापमाणस्तु सुवर्ण दण्डमर्हति ॥३६१॥ नैप चारणदारेषु विधिर्मात्मापजीनिषु । सज्जयन्ति हि ते नारीनिंगूढाश्चारयन्ति च ।३६२१ पराई स्त्री के साथ निषेध करने पर बात न करे और करे तो एक 'सुवर्ण दण्ड योग्य है ॥३६॥ यह विधि चारण = नट गायकादि की स्त्रियों में नहीं है (अर्थान् इन से घोलने का निषेध नहीं है ) सथा (पुत्रापि ) जो अपने अधीन जीविका थाले है उन में भी नहीं हैं। क्योंकि ये (चारणादि) छिपे हुवे आप ही स्त्रियों को सन्जित करके पर पुरुषों के साथ मिलाते हैं ।।३६२।। किञ्चिदेव तु दाप्यः स्यात्सम्भापां तामिराचरन् । प्रयासु चैकमक्तासु रहननजितासु च ॥३६३॥ यो कामां दूपयेत्कन्यां स सबो वधमर्हति । सकामां दुपयंस्तुन्यो न वधं प्राप्नुयानरः ॥३६४। परन्तु उन के साथ भी निर्जन देश मे सम्भाषण करता हुवा कुछ थोड़ा दण्ड देने योग्य है और एकभक्ता तथा विरक्ताके साथ भी सम्मापण करने से थोड़ा दण्ड दे ॥३६॥ जो (हीन जाति) इच्छा न करने वाली कन्या से गमन करे, वह उसी समय वध के योग्य है और कन्या की इच्छा से गमन करने वाला सजातीय पुरुष वध के योग्य नहीं है (किन्तु अन्य दण्डके योग्य है ) ॥३६४६ "कन्या भजन्तीमुत्कृष्टं न किञ्चिदपि दापयेत् । जघन्यं सेवमानां तु संयतां वासयेद् गृहे ॥३६५।। उत्तमो सेवमानस्तु जघन्यो वधमहति । शुल्क दद्यात्सेवमान. समामिच्छस्पिवा यदि ॥३६॥"