पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७६

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अष्ठमाऽध्याय वैश्यः सर्वस्वदण्डः स्यात्संवत्सरनिराधतः । सहस्र क्षत्रियोदण्डया मौण्ड्यं भूत्रेण चाहति ।३७५॥ ब्राह्मणी ययगुप्तां तु गच्छेतां नैश्यपार्थिवौ । वैश्यं पंचशतं कुर्यात् क्षत्रियं तु सहस्रिणम् ।३७६। वैश्य यदि एक वर्ष तक परस्त्री को घर में डाले रहे तो सर्वस्व हरणरूप दण्ड करना चाहिये। और क्षत्रिय सहन दण्ड और मूत्र से शिर मुण्डाने योग्य है ।।३७५|| और यदि अरक्षिता ब्राहाणी से वैश्य, क्षत्रिय गमन करे तो क्षत्रिय को सहस्र और वैश्य का पाच सौ दण्ड चाहिये ।।३७६।। उमावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह । विष्कृतौ शूद्रबहण्यौ दग्धव्यौ वा कटाग्मिना।३७७| सहस्रबासणोदण्ड्योगुप्तां विप्रा बलाढ्जन् । शतानिपंचढण्डयास्यादिच्छन्त्यासहसंगतः ॥३७८|| वे दोनों (क्षत्रिय वैश्य ) रक्षिता ब्राह्मणी के साथ डूबे तो शूद्रवत् दण्ड योग्य है । अथवा उन्हें चटाई में लपेट कर जला देवे ॥३७॥ रक्षिता ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात्कार से मैथुन करे तो सहन्न पण और चाहती हुई से करे तो पाच सौ पण दण्ड योग्य है ॥३७॥ मोदय प्राणान्तिकोदण्डाबामणस्य विधीयते । इतरेषां तु वणाना दण्ड प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।। न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम । राष्ट्रादेन वहि. कुर्यात्समधनमक्षतम् ।।३८०॥ ६०