पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७७

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मनुस्मृति मापानुवाद 'ब्राह्मए, का शिर मुण्डाना ही प्राणन्तिक दण्ड कहा है! अन्य बों का प्राणडण्ड प्राणान्तिक ही है ॥३७९।। सम्पूर्ण . पापो मे भी स्थित ब्राह्मण को कभी न मारे । किन्तु सम्पूर्ण धन के साथ बिना मारे पीटे राज्य से निकाल दे।” (य दोनो ३५० से विरुद्ध हैं। तथा ३८१ मे भी यही दशा है)॥३०॥ "न ब्राह्मणवघा यान धर्मो विद्यते भुवि । तस्मादस्य वध राजा मनसापि न चिन्तयेत् ||३८१।।" वैश्यश्वेत्क्षत्रियां गुप्तां वैश्यां वा क्षत्रियोत्रजेत् । योबाह्मएवामगुप्तायां तावुभो दण्डमहतः ॥३८२|| "ब्राह्मण के वध से बड़ा कोई पाप पृथिवीमे नही है। इससे राजा इस के वध का मन से मी चिन्तन न करे ।।२८॥" रक्षिता क्षत्रिया से यदि वैश्य गमन करे वा वैश्या से क्षत्रिय गमन करे तो जो अरक्षिता ब्राह्मणी से गमन मे दण्ड कहा है वही ( ३७६ के अनुसार) दोनो को हो। (३८२ से आगे ११ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक है,- [चत्रियां चैव नैश्यां च गुप्तां तु ब्राह्मणोनजन् । न मूत्रमुण्डः कव्योदाम्पस्तूत्तमसाहसम् ] ॥ यदि ब्राह्मण, रक्षिता क्षत्रिया या वैश्या से गमन करे तो मूत्रसे मुण्डित न कराया जावे किन्तु "उत्तमसाहस" ( १००० पण) दण्ड दिलाया जाये ॥३८॥ सहस्र ब्राह्मणो दण्डं दाप्यो गुप्तेतु ते वजन् । शद्रायां चत्रियविशो साहस्रोचे भवेदमः ॥३८६॥ क्षत्रियायामगुप्तायां वैश्ये पञ्चशतं दमः ! . .