पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७८

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भटमाऽध्याय ४७५ सूत्रेण मौएयमिच्छेतु क्षत्रियोदण्डमेव वा ॥३८४॥ रक्षिता क्षत्रिया और वैश्या से जो ब्रामण गमन करे तो सहन पण दण्ड होना चाहिये और रक्षिता शहा से क्षत्रिय वैश्य गमन करें तो भी सहत्र दण्ड देना चाहिये ।।३८३।। अरक्षिता जत्रिया के गमन से वैश्य को पांचमी पण दण्ड और नत्रिय का पांच सौ पण धन दण्ड दे अथवा चाहे तो मूत्र से मुण्डन करावे ।। (३४४ से आगे भी ।। श्लोक र पुस्तकों में अधिक है - [शूद्रोत्पन्नांश पापीयान नै मुच्येत किल्बिषाद । तेभ्यो दण्डाहृतं द्रव्यं न कोशे समवेशयेत् ।। अयाजिकंतु तद्राजा दबाद् मृतकवेतनम् । यथा दंडगतं विचं ब्राह्मणेभ्यस्तु लम्भयेत् ।। भा पुरोहितस्तेना ये चान्ये तद्विधा जनाः ॥] अगुप्ते क्षत्रियानै ये शहांबा ब्राह्मणो वजन् । शतानिपञ्चदण्डयास्यासहस्र स्वन्त्यजस्त्रियम् ॥३-५ पस्यम्तेन: पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टयाक् । न साइसिकदण्डनी स राजा शक्रलोकमा ३८६। अरक्षिता क्षत्रिया वैश्या वा शासे प्राण गमन करे तो पांच सौ पण दण्ड और अन्त्यमा के साथ गमन में सहन पण दण्ड होना चाहिये ॥३८॥ जिस राजा के राज्य में चोरी रस्त्रीगमन, गाली देन. साहस बने और मारपीट करने वाले पुरुष नहीं है वह राजा रवा गायलेक का भागी होता है (एक पुस्तक में 'सत्यलाक ' पाठभेद है) ॥२८॥ +