पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७९

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मनुस्मृति मायानुवाद एतेषां निग्रहो गहः पञ्चानां विपये स्वके । साम्राज्य कृत्सजात्येपु लोके चैव यशस्करः॥३८७॥ ऋत्विजयस्त्यजेबायोयाज्यं चर्वित्वस्यजेबादि । शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतंशतम् ॥३८८॥ इन पांचों का अपने राज्य में निग्रह करना राजा को अपने साथी राजाओ मे साम्राज्य कराने वाला और लोगो मे यश करने वाला है ।।३८॥ जो गजमान ऋत्विन को छोडे जा कि कर्म करने में समर्थ और दुष्ट न हो और जो ऋत्विज यजमान को छोड़े उन का सौर पण दण्ड होना चाहिये ।।३८८।। न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्य गमर्हति । त्यजनपतितानेतान् राज्ञा दंड्यः शतानिपट।।३८६|| आश्रमेषु द्विजातीना कार्य विवढतामियः ।। न चित्र यान्नृपोधर्म चिकीर्षन्हितमात्मनः ॥३६०।। माता पिता पुत्र और स्त्री त्याग करनेके योग्य नहीं हैं । जो इन विना पतित हुवो का त्याग करे उसका राजा छ सौ पण दे ।३८९॥ वानप्रस्थाश्रमी कार्य मे परस्पर मझगड़ा करने वाले दिनों के बीचमे, अपना हित करना चाहनेवाला राजा धर्म (न्याय) न करे (अर्थात से कामो मे वलपूर्वक राजाका हस्तक्षेप नहो) ॥३९०।। यथार्हमेतानम्यर्च्य ब्राह्मणैः सहपार्थिवः । सान्त्वेन प्रशमय्यादौ स्व धर्म प्रतिदयेत् ॥३६१॥ प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशति द्विजे। अविभोजयन्विनो दंडमर्हति माषकम् ॥३६२।।