पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४८४

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अमाऽध्याय । प्राह्मण, प्रभुता से वा लाभ से संस्कार किये हुवे द्विजो से विना इच्छाके दास कर्म करावे वो राजा छ सोपण दण्ड दिलावे ॥४१२।। शुद्धं तु कारयेदास्यं श्रीनमत्रीतमेव था। दास्यायैत्र हि सृष्टोसौ ब्रामणस्य स्वयंभुवा ॥४१३।। न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रोदास्याद्विमुच्यते । निसर्गजहि तशस्य कस्तस्मात्तदपाहति ॥४१॥ शूद्र से तो सेवा ही करावे, यह शूर खरीदा हो पा न खरीदा हुवा हो । क्योंकि बादाणादि की सेवा के लिये ही ब्रह्मा ने इसे उत्पन्न किया है ।।४१३। स्वामी से छुटाया हुवा भी शुद्ध दास्य से नहीं छूट सकता। क्योंकि वह उसका स्वामाविक धर्म है उस से उसका कौन हटा सकता है ॥४१४॥ ध्वजाहतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ । पैत्रिका दण्डदासश्च सप्तैते दासयानयः ॥४१५॥ मार्यापुत्रश्च दासश्च त्रय एवा धनाः स्मृताः । यचे समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ॥४१६॥ १-युद्ध में जीत कर लाया हुआ २-भक्तास ३-दासीपुत्र ६४ खरीदा हुवा ५-दानमें दिया हुवा ६-जो बो से चला आना हो और -दण्ड की शुद्धि के लिये जिस ने दास भाव स्वीकृत किया हो. ये सात प्रकार के दास होने हैं ।।४१५|| भार्या, पुत्र और दास ये तीन निर्धन कहे हैं क्योकि जो कुछ ये कमाने हैं या उसका है जिस के किये हैं ॥४१॥ विस्रब्धं ब्रामणः शूद्राद् द्रव्योपादानमाचरेत् । । ६१