पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४८५

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४८२ मनुस्मृति भाषानुवाद $ नाहतस्यास्ति किञ्चित्स्व भव हार्यधनाहि सः।४१७ वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत् । तौ हि च्युतौ स्वकर्मभ्यः क्षोभयेतामिदंजगत् ४१८ भरोसे से शूद्रदास से ब्राह्मण धन ग्रहण करले क्योंकि उसका कुछ भी अपना नहीं है, किन्तु उसका धन भतु ग्राह्य है ॥४१५॥ वैश्य और शूद्रों से प्रयत्न से राजा अपने २ कर्म करावे नहीं तो वे अपने २ कामों से अलग होकर संपूर्ण जगत् को क्षोभ करा देगे ॥४१॥ अहन्यान्यवेक्षेत कर्मन्तान्बाहनानि च । आयव्ययौ च नियताचाकरान्कोश मेव च ॥४१॥ एवं सानिमान् राजा व्यवहारान् समापयन् । व्यपोचकिन्दिप सर्व प्राप्नोति परमां गतिम् ॥४२०॥ राजा कर्मों की निष्पत्ति (फल) और वाहनो तथा आय व्यय और खानि तथा कोप को प्रति दिन देखे ॥४९|| इस उक्त प्रकार से इन (ऋणदानादि) न्वयहारो को ठीक २ निर्णय को पहुंचाता हुवा राजा सम्पूर्ण पाप को दूर करके परमगति पाता है ।। ।।४२०॥ इति मानवे धर्मशास्त्र (भृगुणोक्तायां संहितायां) अष्टमोऽध्यायः ॥८॥ इति श्री तुलसीरामस्वामिविरचिते मनुस्मृतिभाषानुवादे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥