पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ओश्म अथ नवमोऽध्यायः पुरपस्य स्त्रियाश्चैव धर्येवमनि निष्ठतोः । संयोगे विप्रयोगे च धर्मान्वयामि शाश्वनान् ॥१॥ अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुपैः स्वैर्दिवानिशम् । विषयेप च सज्जन्त्यः संस्थाप्या पात्मनावशे ||२|| धर्म मार्ग पर चलने वाले स्त्री पुरुषों के साथ रहने और अलग रसने के सनातन धर्मों को मैं आगे कहता हूँ। (सुनो) ॥शा पतियों को अपनी स्त्रिय मदा म्वाधीन रखनी चाहिये और विपयों में आसक्त होती हुइयों को अपने वश में रखना चाहियोर। पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥३॥ कालेष्टाता पितावाच्यो वाच्यश्चानुपयन्पतिः । मते भतार पुरस्तु वाच्या मातुररक्षिता ॥४|| वाल्याऽवस्था में पिता रक्षा करता है । यौवन में पति रक्षा करता है । वुढापे में पुत्र रक्षा करते हैं। स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है |शा विवाह काल में (१६ वे वर्ष में) कन्यादान न करने वाला पिता और ऋतु काल में स्त्री के पास गमन न करने वाला पति और पति के मरने पर माता की रक्षा न करने वाला पुत्र निन्दनीय है।