पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४.४ मनुस्मृति भाषानुवाद सूक्ष्मेभ्योपि प्रसङ्ग भ्यः स्त्रियोरक्ष्याविशेषतः । द्वयोहि कुलयो: शोकमावहेयुररक्षिताः ॥५॥ इमं हि सर्व वर्णानां पश्यन्तो धर्ममुखमम् । यतन्ते रक्षितु भार्या भतारादुर्वला अपि ॥६॥ थोड़े से भी कुसंग से स्त्रियों की विशेषतः रक्षा करनी चाहिये क्योकि अरक्षित स्त्रिये दोनों कुलों को शोक देने वाली होगी ॥५॥ इस सब वणों के उत्तम धर्म का जानने वाले दुर्यल भी पति अपनी स्त्री की रक्षा का यत्न करते हैं ।।६।। स्वां प्रसति चरित्रं च कुलमात्मानमेव च । स्वं च धर्म प्रयत्नेन जायां रचन् हि रक्षति ॥७॥ पतिर्भायर्या सप्रविश्य गीभूत्वेह आयते । बायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यों जायते पुनः ॥५॥ अपनी सन्तान और चरित्र तथा कुल और धर्म इन सब को यल से स्त्री की रक्षा करने वाला ही रक्षित करता है | एक प्रकार से पति ही स्त्री मे प्रवेश करके गर्म रूप होकर संसार मे उत्पन्न होता है। नाया का जायावं यही है जो कि इस में फिर से जन्मता है। यादशं भजते हि स्त्री सुतंसते तथा विधम् । तस्मात्प्रजाविशुद्धयर्थं स्त्रियं रक्षेत्प्रयत्नतः ॥६॥ न कवियोपितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम् । एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम् ॥१०॥ जिस प्रकार के पुरुष को स्त्री सेवन करे उसी प्रकार का पुत्र