पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९१

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४८८ मनुस्मृति भाषानुवाद की यह निन्दा अनुचित है । १५ वें मे स्त्रियों में यह दोप बतलाया है कि उन का चित्त चञ्चल है और पुरुष पर चलता है उन में स्नेह वा प्रीति नहीं होती । चलचित्तता तो पुरुप में भी कम नहीं होती। हां, स्नेह तो पुरुपसे स्त्रियों में अधिक होता है । १६३ मे इन के इस देोप को ब्रया का बनाया हुवा स्वाभाविक बतलाया है । जिस से मानो यह कहा है कि उन का स्वभाव कभी धर्मानुकूल सुघर ही नहीं सकता। इस कथन ने ऐसा कलङ्क स्त्रियो पर लगाया है कि जो प्राचीन काल की सच्चरित्रा देवियों की निन्दा का तो कहना ही क्या है, वर्तमान घोर समय में भी पुरुप चाहे कैसे ही घृणिताचार हो, किन्तु स्त्रियों में अब भी अधिकांश सती वर्तमान हैं। उन की भी नितान्त असत्य निन्दा इससे होती है। १७ मे जो शय्यासनादि दोष बताये हैं वे पुरुषो में भी कम नहीं होते। और इस श्लोक मे यह जो कहा है कि (स्त्रीभ्योमनुरकल्प- यत्) ये दोप स्त्रियों के लिये मनु ने रचे । इस से इस प्रकरणगत स्त्री निन्म का अन्यकृत होना तो संशयित हुवा ही, किन्तु यह असत्य भी है कि ये दोप जिन मे काम, क्रोध, अनार्जव और द्रोह भी गिनाये हैं, स्त्रियों के लिये मनु ने रचे। क्या ये देोप पुरुषों में नहीं होते ? क्या मनु धर्म व्यवस्थापक होने के अतिरिक्त दोष युक्त स्त्री जातिके सृष्टा भी थे? १८वे का यह कहना कि उन के इन्द्रियां नहीं होती कैसा श्वेत झूठ है । जब कि उनके प्रत्यक्ष हस्त पादादि इन्द्रियों की सत्ता सर्व जगद्गोचरी भूत है। बस इसी से उन की अमन्त्रक क्रिया के पक्षपात और अज्ञान को भी समझ सकते हैं । १९ वे मे कहा है कि इस विषय मे वेद की श्रुतियें भी प्रमाण हैं । २० वे मे "भी किसी पुत्र का अपनी माता के मानस व्यभिचार का वर्णन करना वेद की श्रुति का नमूना बताया है। परन्तु यह अति वेद मे कहीं नहीं, सर्वथा असत्य है। २१ वें में