पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९३

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४९० मनुस्मृति,भापानुवाद क प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्रानिवन्धनम् ॥२७॥ अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह ॥२८॥ सन्तान का उत्पन्न करना और हुवे का पालन करना तथा प्रति दिन (अतिथि तथा मित्रों के) भोजनादि लोकाचार का प्रत्यक्ष आधार स्त्री ही है।।२७) सन्तानोत्पादन धर्म कार्य (अग्नि- होगादि) शुभ पा उत्तम रति तथा पितरो का और अपना स्वर्ग (मुख), ये सब भार्या के अधीन हैं । पति या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता । सा भत लोकानाप्नोति सद्धि. साध्वीति चोच्यते ॥२९॥ व्यभिचारात्त भतु स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । शृगालयोनि चाप्नोति पापरोग व पीडरते ||३०|| "जो स्त्री मन वाणी और देह से संयम वाली पति से मिन्न व्यभिचार नहीं करती वह पति लोको को प्राप्त होती है और शिष्ट लोगो से साध्वी कही जाती है |२९|| पुरुपान्तर संपर्क से स्त्री, लोगो मे निन्दा और जन्मान्तरमे शृगालयोनि को पाती तथा पाप के रोगों से पीडित होती है ।" (५ अध्याय के १६४ । १६५ से पुनरुक्त हैं। ठीक,यही पाठ और अर्थ वहां है) ॥३०॥ पुत्र प्रत्युदितं सद्भिः पूजैश्च महिर्षिभिः । विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निवोधत ॥३१॥ भर्तुः पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वधं तु भर्तरि । : बाहुरुत्पादक केचिदपरे क्षेत्रिणं विदुः ॥३२॥ ।